*होलाष्टक में आखिर क्या होता है खास, क्यों रहना चाहिए सावधान मांगलिक कार्यों मे लगेगी रोक* *( डाॅ. अशोक शास्त्री )*~~
हिंदू धर्म मे होली का त्यौहार का बहुत बेसब्री से इंतजार होता है । होली का त्यौहार फाल्गुन महीने की पूर्णिमा को मनाया जाता है , लेकिन इसके कुछ दिन पहले से होलाष्टक भी शुरू हो जाते हैं । जहां बहुत कुछ सावधानी बरती जाती है । कहा जाता है कि सारे शुभ कार्य बंद हो जाते हैं ।
इस संदर्भ मे मालवा के प्रसिद्ध ज्योतिषाचार्य डाॅ. अशोक शास्त्री बताते हैं कि इस बार होलाष्टक 27 फरवरी से 7 मार्च तक रहेगा । होलाष्टक जैसे ही लगता है वैसे ही मांगलिक कार्यक्रम बंद हो जाते हैं । इसमें भी गंगा नदी के दक्षिण की ओर जितने भी जगह हैं प्रदेश हैं , गांव हैं शहर हैं कस्बा है या जो भी जगह हैं वहां पर होलाष्टक दोष नहीं लगता है । लेकिन गंगा नदी के उत्तर की ओर जितने भी प्रदेश हैं गांव हैं शहर हैं कस्बा हैं जैसे बिहार, गंगोत्री , यमुनोत्री की ओर होलाष्टक का प्रभाव रहता है ।
डाॅ. अशोक शास्त्री के मुताबिक होलाष्टक लग जाने से कोई भी मांगलिक कार्यक्रम शुभ कार्य जैसे विवाह है व्रतबन्ध , मुंडन , कर्ण छेदन, अन्नप्राशन, घर का उद्घाटन , नया जमीन लेना , नया वाहन लेना यह सभी वर्जित हो जाते हैं । हालांकि गंगा नदी के जितने भी दक्षिण दिशा में जगह हैं वहां पर होलाष्टक का दोस नहीं लगता है । इस दौरान भी पंचांग में बकायदे मुहूर्त बनाए जाते हैं । विवाह उपनयन सारे शुभ कार्यक्रम होते हैं और जहां जिस प्रदेश में जिस उत्तर दिशा में होलाष्टक दोष लागू होता है वहां होलाष्टक में कार्य नहीं होते हैं ।
डाॅ. अशोक शास्त्री बताते हैं कि जिन जगहों पर होलाष्टक के दोष माने जाते हैं वहां पर मांगलिक कार्यों के प्रतिबंध होते हैं वह तो भूलकर भी नहीं करना चाहिए , नहीं तो इसके काफी दोष भी होते हैं । अगर होलाष्टक के समय में कोई शुभ कार्य करते हैं तो वह अशुभ हो सकता है , वह कार्य सफल नहीं होता है । साथ ही उसके काफी दोष भी आगे चलकर देखने को मिल सकते हैं । अगर विवाह करते हैं तो विवाह सफल नहीं होता है पति - पत्नी में आपस में मनमुटाव होता है । एक तरह से कहा जाए तो कोई भी शुभ कार्य इस होलाष्टक के समय में करने पर सफल नहीं होता है । इसलिए होलाष्टक के समय में जहां पर होलाष्टक के दोष मान्य हैं वहां शुभ कार्य मांगलिक कार्य करने से बचना चाहिए ।
डाँ. शास्त्री के अनुसार होलाष्टक की अवधि को साधना के कार्य अथवा भक्ति के लिए उपयुक्त माना गया है । इस समय पर केवल तप करना ही अच्छा कहा जाता है । ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए किया गया धर्म कर्म अत्यंत शुभ दायी होता है. इस समय पर दान और स्नान की भी परंपरा रही है ।
पौराणिक कथाओं के मुताबिक , दैत्यों के राजा हिरयकश्यप ने अपने पुत्र प्रह्लाद को भगवान श्री विष्णु की भक्ति न करने को कहा , लेकिन प्रह्लाद अपने पिता कि बात को नहीं मानते हुए श्री विष्णु भगवान की भक्ति करता रहा । इस कारण पुत्र से नाराज होकर राजा हिरयकश्यप ने प्रह्लाद को कई प्रकार से यातनाएं दी । प्रह्लाद को फाल्गुन मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी से लेकर पूर्णिमा तिथि तक बहुत प्रकार से परेशान किया । उसे मृत्यु तुल्य कष्ट प्रदान किया । प्रह्लाद को मारने का भी कई बार प्रयास किया गया । प्रह्लाद की भक्ति में इतनी शक्ति थी की भगवान श्री विष्णु ने हर बार उसके प्राणों की रक्षा की ।
आठवें दिन यानी की फाल्गुन पूर्णिमा के दिन हिरण्यकश्यप ने प्रह्लाद को मारने के लिए अपनी बहन होलिका को जिम्मा सौंपा । होलिका को वरदान प्राप्त था की वह अग्नि में नहीं जल सकती । होलिका प्रह्लाद को अपनी गोद में लेकर अग्नि में बैठ जाती है । मगर भगवान श्री विष्णु ने अपने भक्त को बचा लिया । उस आग में होलिका जलकर मर गई लेकिन प्रह्लाद को अग्नि छू भी नहीं पायी , इस कारण से होलिका दहन से पहले के आठ दिनों को होलाष्टक कहा जाता हैं और शुभ समय नहीं माना जाता ।
डाॅ. अशोक शास्त्री के अनुसार होलाष्टक के समय पर जो मुख्य कार्य किए जाते हैं । उनमें से मुख्य हैं होलिका दहन के लिए लकडियों को इकट्ठा करना । होलिका पूजन करने के लिये ऎसे स्थान का चयन करना जहां होलिका दहन किया जा सके । होली से आठ दिन पहले होलिका दहन वाले स्थान को शुद्ध किया जाता है । उस स्थान पर उपले , लकडी और होली का डंडा स्थापित किया जाता है । इन काम को शुरु करने का दिन ही होलाष्टक प्रारम्भ का दिन भी कहा जाता है ।
शहरों में यह परंपरा अधिक दिखाई न देती हो , लेकिन ग्रामिण क्षेत्रों में आज भी स्थान - स्थान पर गांव की चौपाल इत्यादि पर ये कार्य संपन्न होता है । गांव में किसी विशेष क्षेत्र या मौहल्ले के चौराहे पर होली पूजन के स्थान को निश्चित किया जाता है । होलाष्टक से लेकर होलिका दहन के दिन तक रोज ही उस स्थान पर कुछ लकडियां डाली जाती हैं । इस प्रकार होलिका दहन के दिन तक यह लकडियों का बहुत बड़ा ढेर तैयार किया जाता है ।
डाॅ. शास्त्री के अनुसार होलाष्टक के समय पर व्रत किया जा सकता है , दान करने से कष्टों से मुक्ति मिलती है । इन दिनों में सामर्थ्य अनुसार वस्त्र , अन्न , धन इत्यादि का दान किया जाना अनुकूल फल देने वाला होता है ।
फाल्गुण शुक्ल अष्टमी से लेकर होलिका दहन अर्थात पूर्णिमा तक होलाष्टक रहता है । इस दिन से मौसम की छटा में बदलाव आना आरम्भ हो जाता है । सर्दियां अलविदा कहने लगती है , और गर्मियों का आगमन होने लगता है । साथ ही वसंत के आगमन की खुशबू फूलों की महक के साथ प्रकृ्ति में बिखरने लगती है । होलाष्टक के विषय में यह माना जाता है कि जब भगवान श्री भोले नाथ ने क्रोध में आकर काम देव को भस्म कर दिया था , तो उस दिन से होलाष्टक की शुरुआत हुई थी ।
डाॅ. शास्त्री के मुताबिक इस दिन भगवान श्री विष्णु का पूजन किया जाता है । होलाष्टक की एक कथा हरिण्यकश्यपु और प्रह्लाद से संबंध रखती है । होलाष्टक इन्हीं आठ दिनों की एक लम्बी आध्यात्मिक क्रिया का केन्द्र बनता है जो साधक को ज्ञान की परकाष्ठा तक पहुंचाती है ।
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