झाबुआ~संस्कार स्कूल सुनिश्चित नहीं करते बल्कि पाठशाला करती हैं~~
35 बच्चों को प्रतिक्रमण पूर्णत: कंठस्थ~~
झाबुआ। ब्यूरो चीफ़.-संजय जैन~~
श्री राजेंद्र जयंत पाठशाला झाबुआ में प्रतिवर्ष 70-80 बच्चे जैन धर्म की विभिन्न भावना,पाठ,स्त्रोत,नियम व सूत्र कंठस्थ कर रहे हैं। वर्ष 2004 में पुण्य सम्राट पूज्य आचार्य जयंतसेन सूरीश्वरजी मसा की प्रेरणा से पाठशाला प्रारम्भ हुई थी। जब से पाठशाला की शुरुआत हुई है तब से पाठशाला का एकमेव उद्देश्य रहा है बच्चों में अच्छे और सच्चे संस्कार विकसित करना।
संस्कार स्कूल सुनिश्चित नहीं करते बल्कि पाठशाला करती हैं..............
शिक्षा हमेशा रोजगारोन्मुखी होती है उसका काम जीवन.यापन के लिए आजीविका उपलब्ध कराना होता है,मगर पाठशाला संस्कार हमारे व्यवहार को प्रदर्शित करता है। मेरा व्यक्तिगत मानना यह है कि शिक्षा का उद्देश्य नौकरी या व्यापार ही होता है। हमें अच्छा इंसान हमारे संस्कार बनाते हैं,यही फर्क है शिक्षा और पाठशाला संस्कार में। इसलिए संस्कार के लिए हम पाठशाला जाते हैं और पाठशाला का उद्देश्य बच्चों में संस्कार विकसित करना होता है। पाठशाला में प्रतिदिन बच्चों को प्रभावना भी वितरित की जाती है । झाबुआ में पाठशाला प्रतिवर्ष 1 मई से प्रारंभ हो जाती है,जो लगातार 45 दिन तक प्रतिदिन चलती है । पाठशाला प्रतिदिन सुबह 8.30 बजे णमोकार मंत्र के साथ शुरू की जाती है ।
35 बच्चों को प्रतिक्रमण पूर्णत: कंठस्थ.....
सूश्रावक संजय मेहता,जयेश संघवी,रचित कटारिया व सूश्राविका कविता मेहता,सोनू पगारिया धार्मिक शिक्षक के रूप में बच्चों को पढ़ाते है। बच्चों को उनकी उम्र के हिसाब से वर्गीकृत कर जैन धर्म के सिद्धांत, स्त्रोत,नियम व सूत्र को सरल भाषा में समझाया जाता हे । साथ ही 5 से 15 वर्ष के बच्चों को सामयिक,ध्यान मुद्रा, जिनेन्द्र भगवान पूजन करने की विधि, प्रतिक्रमण सूत्र कंठस्थ कैसे करें....? क्रिया करते समय उपकरण का उपयोग कैसे करे...? आदि बच्चों को सिखाया जाता है । इसी प्रकार पाठशाला इन सभी बच्चों को विभिन्न जैन धर्म पर स्पीच देना, चित्रकला,गहुली प्रतियोगिता आदि गतिविधियों के माध्यम से उनके जीवन को संस्कारित करने का प्रयास प्रतिदिन किया जाता है । प्रतिदिन इन बच्चों को अभिभावको की और से प्रभावना भी वितरित की जाती है । पाठशाला के 35 बच्चों ने प्रतिक्रमण पूर्णत: कंठस्थ कर लिया हे ।
संस्कार स्कूल सुनिश्चित नहीं करते बल्कि पाठशाला करती हैं.................
सुबह उठकर हमारी दिनचर्या कैसी होनी चाहिए ...? ये स्कूल सुनिश्चित नहीं करते बल्कि पाठशाला सुनिश्चित करती है। सुबह उठकर णमोकार मंत्र को पढ़ना, शौचादि क्रियाओं से निपटकर नहा धोकर शुद्ध वस्त्र पहनकर मंदिर जाना व पूजन करना , बुजुर्ग से लेकर बच्चों तक को जय जिनेन्द्र कहकर जिनेन्द्र भगवान का स्मरण स्वयं करना और दूसरों का कराना ये संस्कार कहलाते हैं।
संस्कार ही बच्चों को देना पाठशाला का ध्येय...............
स्कूल हमें माता पिता को अंग्रेज़ी में क्या कहते हैं ये तो सिखाते हैं। मगर माता-पिता का सम्मान करना,बड़े.-बुजुर्गों के पैर छूना ये सिर्फ हमारे संस्कार दर्शाते हैं और वह संस्कार ही बच्चों को देना पाठशाला का ध्येय होना चाहिए। संस्कार बच्चो में विकसित करने का कार्य हमारी पाठशालाएं करती हैं। लाड़-प्यार के कारण आज बच्चे घर में संस्कार नहीं सीख पाते हैं,इसलिए पाठशाला का उद्देश्य संस्कार देना होना चाहिए। आज जैन बच्चे ही कम उम्र में नशे के आदी होने लगे हैं।
उद्देश्य जैन धर्म के संस्कारों को बच्चों में डालना..................
पाठशाला का उद्देश्य जैन धर्म के संस्कारों को बच्चों में डालने का है। उनमें विवेकपूर्वक खुद निर्णय लेने की क्षमता विकसित करना ही पाठशाला का कर्तव्य है। हम बच्चे से बार कहते रहेंगे कि मंदिर जाओ-मंदिर जाओ बच्चा 1 हफ्ते तक जाएगा मगर फिर वो मंदिर नहीं जाएगा लेकिन जब हम उसे ये बताएंगे कि मंदिर क्यों जाना चाहिए...? मंदिर जाने से क्या होता है...? हम मंदिर भगवान जैसा बनने के लिए जाते हैं ये बताने का काम हमारी पाठशाला करती हैं।
अच्छे संस्कारों की नींव रखी जा सके.....................
वर्तमान समय को सबसे बड़ी विडंबना ये है कि बच्चे जिनेन्द्र देव को तो मानते हैं,मगर जिनेन्द्र देव की एक नहीं मानते है। जिन का मार्ग क्या है ...?उनका सच्चा उपदेश क्या है...? यह जब तक पाठशाला के माध्यम से बच्चों को समझाया नहीं जाएगा तब तक जैन धर्म के सच्चे स्वरूप को वे समझ नहीं पाएंगे। पाठशाला को पढ़ाने का उद्देश्य नई जनरेशन के अनुसार होना चाहिए।मगर सिद्धांतों में कोई फेरफार संभव नहीं है। हमें बच्चों के स्तर पर आकर सोचना होगा।
कंठ पाठ योजना-अर्थ सहित .............
हर स्त्रोत्र,पाठ व सूत्र को कंठस्थ कर लिया जाता है। सभी कंठस्थ चीजों का मतलब जब अर्थ सहित पढ़ाते हैं तब बच्चों की समझ में आएगा कि उन्होंने उस समय एक बहुत अद्भुत काम किया है। जब हमारे पास जिनवाणी उपलब्ध नहीं होती,फिर भी हम कंठस्थ पाठ को दुहरा लेते हैं और हमारा चित्त निर्मल हो जाता है। बच्चों को वीतराग विज्ञान भाग 1, 2 और 3 उम्र के हिसाब से अलग-अलग समझाना चाहिए साथ ही मेरी भावना, पाठ, स्त्रोत कंठस्थ कराना भी पाठशाला के प्रयोजन को ध्यान रखेंगे तो निश्चित रूप से पाठशाला बच्चों के लिए भविष्य में स्मरण योग्य होगी।
पाठशाला के अध्यापक की विशेषता................
-शिक्षक को मुख्यत: बच्चो को जैन धर्म के तत्वों को प्रमुखता से समझाना चाहिए,सिर्फ पोपट राम-राम बच्चे न बने इसका विशेष ध्यान रखना चाहिए।
-अध्यापक के पढ़ाने की शैली ही उसे बच्चों से जोड़ती है। अगर अध्यापक रोचक ढंग से कठिन विषयों को भी सरलता और रोचकता से पढ़ा रहा है तो बच्चे भी शिक्षक का साथ देते हैं।
-अध्यापक अगर बच्चों को एक्शन के साथ पढ़ाये तो बच्चे जल्दी सीखते हैं। पाँच पाप के नाम अगर एक्शन के साथ पढ़ाते हैं,तो बच्चों को जल्दी याद हो जाते हैं और बच्चे पाँच पाप के नाम भूल भी जाएं, फिर भी एक्शन उनको याद रहती है जिससे वो पाँच पापों के मूल भाव को समझ जाते हैं और इन्हें छोड़ने का, त्यागने का प्रयास करते हैं।
-शिक्षक को अपना विषय पढ़ाते वक्त नए-नए उदाहरणों को जो वर्तमान से संबंध रखते हों वह बच्चों को बताकर उसके माध्यम से विषय को समझाना चाहिए।
-शिक्षक समय का पाबंद होना चाहिए, क्योंकि अगर शिक्षक समय का पाबंद नहीं होगा तो बच्चों पर गलत प्रभाव जाता हैं।
-आज बच्चों में आत्मविश्वास की बहुत कमी देखी जाती है,जिससे बच्चे किसी भी बात को कहने में हिचकिचाते हैं वो सही बात भी बोल नहीं पाते है।इसलिए शिक्षक का ये कर्तव्य है कि वो बच्चों में आत्मविश्वास विकसित करे। बच्चों को संस्कारित, तनाव मुक्त रखने का भी गुण शिक्षक में होना चाहिए।
वर्तमान समय अनुसार किस पद्धति से बच्चों को पढ़ाया जाए...................
-पाठशाला पढ़ाने की पद्धति में सबसे पहला लक्ष्य पाठशाला के माध्यम से जीवन जीने का तरीका कैसे विकसित करें ये होना जरूरी है।
-हर दिन या हर हफ्ते हमारे महापुरुषों की एक शिक्षाप्रद कहानी बच्चों को जरूर सुनाए, जिससे बच्चों में कठिन परिस्थितियों में भी जीवन जीने का तरीका विकसित होता है।
-छोटे बच्चों को एक्शन से पढ़ाना बहुत अच्छी पद्धति है। इससे बच्चों को चीजें जल्दी याद हो जाती हैं। शब्द भूल भी जाएं मगर उन्हें एक्शन याद रहती है।
-बच्चों को आसानी से पढ़ाने के लिए विषय कितना भी कठिन हो उसको सरल भाषा में पढ़ाना चाहिए। नए-नए उदाहरण खोजकर,जो वर्तमान में अत्यधिक प्रचलित हों उनके माध्यम से किसी भी बात के सिद्धान्त को आसानी से समझाया जा सकता है।
-पाठशाला में पढ़ाने के लिए बच्चों का मनोबल बढ़ाने उन्हें प्रोत्साहित करने के लिए पुरुस्कार की पद्धति सबसे अच्छी है।
-छोटे-छोटे बच्चों को पुरुस्कार का लालच देकर धर्म की बात समझा सकते हैं साथ ही लालच बुरी बला है ये भी समझा सकते हैं। कड़वी दवाई को बताशे में रखकर बच्चों को पिलाया जाता है,वैसे ही हम जैन धर्म की सच्ची बातों को बताशे अर्थात पुरुस्कार देकर समझा सकते हैं। समझ बढ़ते ही लालच छोड़कर बच्चे विषय पर ध्यान देते हैं।
-पाठ,स्त्रोत व सूत्र आदि कंठस्थ कराना बहुत जरूरी है,जिससे बच्चों की स्मरण शक्ति भी तेज होगी और जुबां पर जिनेन्द्र देव का नाम रहेगा चाहे कैसी भी परिस्थितियां हों।
-बच्चों के लिए सबसे उदासी का क्षण वो होता है जब हम उनकी तुलना एक दूसरे से करने लगते हैं। सीख देना अलग बात है मगर दूसरे बच्चे से तुलना करके उसको नीचा दिखाना, यह सबसे बड़ा अपराध है फिर वो बच्चा कभी प्रश्न नहीं पूछेगा और अपने आप को कमजोर ही समझेगा।
-सप्ताह के अंत में खेल प्रतियोगिता जरूर होना चाहिए,जिससे बच्चों को मोटिवेशन भी मिलता है। खेल जैन धर्म से सम्बंधित होना चाहिए और बहुत हैं।
तथा रविवार के दिन भक्ति करने का संस्कार भी बच्चों को देना चाहिए।
परम पूज्य आचार्य विजय दिव्यानंद सूरी मसा.ने दी प्रेरणा....
परम पूज्य आचार्य विजय दिव्यानंद सूरी मसा.की पावन निश्रा झाबुआ में चल रहे दिव्य आत्मस्पर्शी चातुर्मास के दौरान पाठशाला कोष हेतु गुरुदेव की प्रेरणा से प्रेरित होकर झाबुआ श्रीसंघ ने जैन पाठशाला कोष हेतु एक पुण्यकारी एवम आत्मस्पर्शी परिपाटी का आगाज किया गया। उसी दिन प्रेरित होकर श्रावक और श्राविकाओं ने खुले मन से लगभग 3 लाख की राशि पाठशाला कोष हेतु देने की घोषणा कर दी। अब तक झाबुआ संघ में सिर्फ जीवदया कोष ही चलता था,अब आगे भी इस वर्ष की तरह ही प्रतिवर्ष जीवदया कोष और पाठ शाला कोष में राशि जमा की जाएगी। जिस किसी भी महानुभाव को इस पुनीत कार्य मे सहयोगी बनना है,वे रिषभ देव बावन जिनालय झाबुआ पेढ़ी पर राशि जमा करा सकते है।
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